देहरादून। (अविकल थपलियाल) जिंदगी के अंतिम समय तमाम चारित्रिक लांछन लगने के बाद भी तिवारी हरसम्भव राजनैतिक और सामाजिक जीवन मे अपनी उपयोगिता बनाये रखने की कोशिश करते रहे।
तिवारी जी ने अपनी राजनीति की दूसरी पारी अलग राज्य उत्तराखंड से शुरू की। 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बढ़त पर थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी इस्तीफा दे चुके थे और कांग्रेस आलाकमान मुख्यमन्त्री की तलाश में व्यस्त था। कांग्रेस खेमे में तब के प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत को स्वभाविक दावेदार माना जा रहा था। इसके अलावा इंदिरा हृदयेश,महाराज भी लाइन में थे। लेकिन पलड़ा हरीश रावत का ही भारी माना जा रहा था। अचानक रातों रात महाराज, इंदिरा और विजय बहुगुणा ने हरीश को रोकने के लिए सोनिया गांधी के सामने तिवारी जी का नाम आगे कर दिया। हमेशा से ही राष्ट्रीय राजनीति में रहे तिवारी जी उत्तराखंड आने के कतई भी इच्छुक नही थे। लेकिन, पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने तिवारी जी का नाम फाइनल कर छोटे राज्य उत्तराखंड को बड़ा मुख्यमन्त्री दे दिया।
हरीश रावत जे लिए ये किसी सदमे से कम नही था। और फिर मुख्यमन्त्री तिवारी ने हरीश गुट के इस दर्द की आह पूरे पांच साल तक झेली। लेकिन उफ्फ तक नही की। अन्य मुख्यमन्त्रियों की तरह कभी तिवारी ने ये नही कहा कि उनके ही लोग साजिश कर रहे हैं। और उत्तराखंड में पूरे पांच साल सरकार चलाकर अटूट कीर्तिमान भी बनाया। उसी दौरान कांग्रेस छोड़ चुके पी ए संगमा ने फुटबाल के बड़े सितारे का उल्लेख करते हुए देहरादून में कहा था कि तिवारी जी तो राजनीति के माराडोना है, उनकी जगह दिल्ली है न कि उत्तराखंड। यह कहकर संगमा सोनिया गांधी को अहसास भी करा रहे थे।
अंदरूनी अस्थिरता के बावजूद तिवारी ने तीन वित्तीय वर्ष में सालाना बजट से अधिक धनराशि खर्च की, जो अन्य मुख्यमन्त्री नही कर पाए। और 2002 से 2007 के बीच एक समय ऐसा भी आया कि उत्तराखंड का बजट पड़ोसी राज्य हिमाचल से भी अधिक हो गया था। योजना आयोग में तिवारी के दमदार प्रस्तुतिकरण से ही यह सम्भव हो पाया था। पहली बार तिवारी के ही राज में हुए पौड़ी पटवारी भर्ती घोटाले में एक आई ए एस अधिकारी लाम्बा को बर्ख़ास्त होना पड़ा था। अलबत्ता नौछमी नारायण गीत ने तिवारी सरकार पर खूब रोशनी डाली लेकिन राजनीति के माहिर तिवारी ने कोई प्रतिक्रिया नही दी।
2003 में तिवारी के आग्रह पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने विशेष औद्योगिक पैकेज दिया। और फिर सिडकुल के जरिए कई घराने भी प्रदेश में आये। इस बीच, देहरादून आये प्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा ने साफ कहा था कि वित्त और कामर्स मंत्री रहे तिवारी जी के यहां रुपयों की अटैची नही चलती थी।
2007के बाद तिवारी की राजनीतिक यात्रा ने बेहद नाटकीय मोड़ लिया। विधानसभा चुनाव हार के बाद तिवारी आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहते हुए सेक्स स्कैण्डल में फंसे। कांग्रेस आलाकमान ने चुप्पी साध ली। दिसम्बर 2009 में इस्तीफा देने के बाद सीधे देहरादून पहुंचे। ये दौर उनके लिए काफी मुश्किल भरा था। लेकिन अपने को सक्रिय दिखाने के लिए तिवारी कभी निर्माणाधीन बस अड्डे , हर्बल पार्क में अड्डा जमाकर अधिकारियों को निर्देश देने लगते थे। समाज और राजनीति से जुड़े रहने के लिए पूरी तरह अकेले पड़ चुके तिवारी का देहरादून के फारेस्ट गेस्ट हाउस में होली के मस्त हुल्यारों के गीत गाने और अबीर गुलाल उड़ाने का सिलसिला भी जारी रखा। उधर, रोहित शेखर जैविक पुत्र की तिवारी से जंग भी सुर्खियों में बनी रही। जन्मदिन, नये साल, होली, दीवाली पर पत्रकारों को फ़ोन कर बधाई देना नही भूले। उन्हें इस बात का दुख रहता था कि अखबारों के छोटे संस्करण होने से एक जिले की खबर दूसरे जिले में पढ़ने को नही मिलती थी।
2009 के हैदराबाद राजभवन सेक्स स्कैंडल के बाद तिवारी की छांव में राजनीति का फलसफा सीखने वाले करीबी नेता भी किनारे कर गए। बादशाह के अकेलेपन की ये एक शुरुआत भर थी। फिर भी 2012 के विधानसभा चुनाव में अपने भतीजे को चुनाव लड़वाया। रोड शो भी किये। लेकिन जितवा नहीं पाये। 2002 के अपने रामनगर उपचुनाव में नामांकन करने के बाद स्वंय प्रचार न कर 70 प्रतिशत से मत लेने वाले तिवारी के लिए भतीजे की हार एक बड़ा धक्का थी।
2012 में कांग्रेस की विजय बहुगुणा सरकार ने भी उन्हें तवज्जो नही दी। उधर, उत्तर प्रदेश के नये नये मुख्यमन्त्री बने अखिलेश सिंह अनुभवी तिवारी को लखनऊ के गए। और राजकाज चलाने में उनके अनुभव का सहारा लिया। उत्तराखण्ड में उपेक्षा झेल रहे बुजुर्ग तिवारी की जिंदगी में दूसरी शादी का भी हैरतअंगेज संयोग भी आया। देश भर में चर्चित पितृत्व विवाद में रोहित शेखर जैविक पुत्र की लड़ाई जीत चुका था। उम्र के 90वें पड़ाव में दूल्हा बने। सेहरा पहना। सात फेरे लेकर नयी ‘गृहस्थी’ में तिवारी का कुछ साल रहना भी देश में चर्चा का मुख्य मुद्दा बना रहा। और 1942 के आजादी आंदोलन का मसीहा अपने ही घर मे खिलौना बन कर रह गया। एक जमाने का बादशाह की जिंदगी त्रासदी बन गयी।
1991 के लोकसभा चुनाव में अपनी हार को तिवारी आखिरी समय तक नही भुला पाए। कहते थे अगर जीत जाता तो प्रधानमंत्री बनता। देश की राजनीति में नरसिम्हा राव 5 साल तक राज न करते। उत्तर प्रदेश के चार बार मुख्यमन्त्री रहे तिवारी बेशक प्रधानमंत्री नही बन पाए लेकिन चारित्रिक आरोपों के बावजूद वो आखिरी सांस तक विनम्रता, मधुरता, धैर्य और संघर्ष के नायक बने रहे। कुमायूं के बल्यूटी का नरेन लम्बी और अंतिम उड़ान पर निकल गया। राजनीति के ऐसे कथानायक को अंतिम सलाम।