क्राइम लिट फेस्ट के समापन दिवस पर साहित्य, कानून और सिनेमा का संगम -
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क्राइम लिट फेस्ट के समापन दिवस पर साहित्य, कानून और सिनेमा का संगम

  • अभिनेत्री त्रिधा चौधरी, पूर्व पुलिस कमिश्नर आमोद कंठ एवं नीरज कुमार, पूर्व डीजीपी अनिल रतूड़ी, ज़ैशान क़ादरी, के.के. गौतम सहित लेखकों, पत्रकारों और कानून-प्रवर्तन से जुड़ी प्रमुख आवाज़ों ने फेस्ट के समापन दिवस को आकार दिया

देहरादून । दून कल्चरल एंड लिटरेरी सोसाइटी (डीसीएलएस) द्वारा आयोजित क्राइम लिटरेचर फेस्टिवल ऑफ इंडिया का समापन दिवस गहन और विचारोत्तेजक संवादों के साथ संपन्न हुआ, जिसमें अपराध को मीडिया, तकनीक, न्याय, आस्था, साहित्य, सिनेमा और जमीनी यथार्थ के विभिन्न दृष्टिकोणों से परखा गया। हयात सेंट्रिक, देहरादून में आयोजित इस अंतिम दिन पूर्व दिल्ली पुलिस कमिश्नर आमोद कंठ एवं नीरज कुमार, उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अनिल रतूड़ी, अभिनेत्री त्रिधा चौधरी, सेवानिवृत्त डीएसपी (यूपी) के.के. गौतम, लेखक-अभिनेता एवं बिग बॉस प्रतिभागी ज़ीशान क़ादरी, उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अशोक कुमार, पूर्व डीजी आलोक लाल और लेखक मानस लाल सहित अनेक प्रतिष्ठित वक्ताओं ने अपने विचार साझा किए।


दिन की शुरुआत सत्र “पर्सपेक्टिव्स ऑन रिपोर्टिंग क्राइम: प्रिंट वर्सेज टेलीविजन” से हुई, जिसमें पत्रकार अश्विनी भटनागर और शम्स ताहिर ख़ान ने अनूपम त्रिवेदी के साथ संवाद किया। चर्चा में दोनों माध्यमों में अपराध रिपोर्टिंग की जिम्मेदारियों, दबावों और नैतिक चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया। अश्विनी भटनागर ने कहा कि आज पत्रकारिता में कंटेंट और खबर के बीच का फर्क धुंधला हो गया है, जहां सनसनीखेज़ी तथ्यपरक रिपोर्टिंग पर हावी हो रही है, जिससे मीडिया की विश्वसनीयता में गिरावट आई है। शम्स ताहिर ख़ान ने कहा कि मीडिया अब पत्रकारिता से मनोरंजन की ओर बढ़ रहा है; मीडिया ट्रायल न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित भी कर सकते हैं और अधिकारियों को कार्रवाई के लिए मजबूर भी करते हैं, साथ ही चयनित नैरेटिव के ज़रिये जनमत को आकार देते हैं। अनूपम त्रिवेदी ने प्रिंट से टीवी और डिजिटल मीडिया की ओर बदलती उपभोग प्रवृत्तियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि आज संपादकीय फिल्टर के अभाव में जाति और धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दों पर गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग सामाजिक विभाजन को और गहरा कर रही है।


इसके बाद “फ्रेम्ड बाय एआई: डीपफेक्स एंड द रिस्क ऑफ़ डिजिटल अरेस्ट” सत्र हुआ, जिसमें अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (इंटेलिजेंस एवं सिक्योरिटी) अंकुश मिश्रा, पत्रकार मिताली चंदोला और एंटी-साइबर विशेषज्ञ डॉ. गगनदीप कौर ने पूजा मारवाह के साथ संवाद किया। मिश्रा ने बताया कि डीपफेक—मॉर्फ की गई तस्वीरों से लेकर वॉयस क्लोनिंग तक—कैसे बनाए जाते हैं और हर व्यक्ति की डिजिटल फुटप्रिंट होने के कारण साइबर हाइजीन कितना आवश्यक है। मिताली चंदोला ने कहा कि अपराध का बड़ा हिस्सा अब ऑनलाइन हो चुका है और “डिजिटल अरेस्ट” पीड़ितों का मनोवैज्ञानिक शोषण करता है; ऐसे में जागरूकता ही सबसे बड़ा बचाव है।


“इनोसेंस एट रिस्क: द काम्प्लेक्स लैंडस्केप ऑफ़ जुवेनाइल जस्टिस” सत्र में आईपीएस एवं सामाजिक कार्यकर्ता आमोद कंठ  ने पूर्व डीजीपी अनिल रतूड़ी के साथ बच्चों की न्याय प्रणाली में संवेदनशीलताओं पर चर्चा की। कंठ ने स्पष्ट किया कि ‘जुवेनाइल’ अब भारित शब्द नहीं रहा और इसे ‘कानून से संघर्षरत बच्चा’ तथा ‘देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता वाला बच्चा’ कहा जाता है। उन्होंने कहा कि किशोर न्याय प्रणाली दंड नहीं, बल्कि देखभाल पर केंद्रित है और बच्चों के भविष्य की रक्षा के लिए रिकॉर्ड साफ किए जाते हैं। उन्होंने बताया कि किशोर अपराध कुल मामलों का एक प्रतिशत से भी कम है, जबकि भारत में लगभग 3–3.5 करोड़ बच्चे देखभाल की आवश्यकता में हैं, जिनके मुकाबले संस्थागत क्षमता केवल करीब दो लाख की है। गोद लेने की संख्या 3,000–3,500 तक सीमित है, जबकि फोस्टर केयर और स्पॉन्सरशिप अभी भी कमजोर हैं। प्रयास जेएसी सोसाइटी के कार्यों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि पुनर्वास संभव है, जैसा कि हाल ही में एक बाल गृह की 10 लड़कियों ने दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाएं पास कीं। हालांकि, 18 वर्ष के बाद अपर्याप्त आफ्टरकेयर, मिशन वात्सल्य का कमजोर क्रियान्वयन, बाल कल्याण समितियों का कम उपयोग, सीमित एनजीओ सहयोग और हेल्पलाइन 1098 का बंद होना गंभीर चुनौतियां हैं। अनिल रतूड़ी ने कहा कि किशोरावस्था एक जटिल विकासात्मक चरण है और 2015 के संशोधन के तहत 16–18 वर्ष के गंभीर अपराधों में मानसिक और शारीरिक परिपक्वता का आकलन किया जाता है; ऐसे अधिकांश मामले गहरे सामाजिक-आर्थिक अभाव से जुड़े होते हैं।


खुफिया दुनिया पर केंद्रित सत्र “द दिल्ली डायरेक्टिव: द इनसाइड स्टोरी ऑफ़ सीक्रेट ऑपरेशन्स बाय इंटेलिजेंस एजेंसीज़” में लेखक अनिरुद्ध्य मित्रा और अनिल रतूड़ी ने मनोज बर्थवाल के साथ संवाद किया। मित्रा ने कहा कि उनके लेखन में पात्र केंद्रीय भूमिका निभाते हैं और किसी व्यक्ति का मूल स्वभाव उसके पेशे से नहीं बदलता। उन्होंने बताया कि कथात्मक स्वतंत्रता के लिए उन्होंने फिक्शन चुना, लेकिन पुस्तक व्यापक फील्ड रिसर्च पर आधारित है। रतूड़ी ने कहा कि खुफिया कार्य में पूर्ण प्रतिबद्धता आवश्यक होती है, लेकिन जीवन केवल नौकरी तक सीमित नहीं है; गोपनीयता के कारण खुफिया कर्मी प्रायः अनदेखे रह जाते हैं, जबकि उनकी छोटी-सी चूक भी तुरंत ध्यान खींच लेती है।


“बावली कमांडर” सत्र में लेखक एवं फिल्म निर्माता अमित खान ने संजिव मिश्रा के साथ बातचीत के दौरान नायकत्व की बदलती अवधारणा पर विचार रखते हुए कहा कि आज की राजनीति में नेता कब नायक से खलनायक बन जाते हैं, इसका पता ही नहीं चलता। उन्होंने कहा कि कहानियाँ ऐसी होनी चाहिए जो दशकों तक जीवित रहें और उन नायकों को सम्मान दें जिनके मूल्य समय की कसौटी पर खरे उतरें। अमित खान ने जोड़ा कि सच्चा नायक वही है जो देश के लिए मर मिटने को तैयार हो।

इसके बाद “क्राइम कहानियां: सीरियल किलर्स से सावधान तक” सत्र में अनिरबन भट्टाचार्य ने सृष्ट्री सेठी के साथ अपराध कथाओं, मनोविज्ञान और जन-संचार पर चर्चा की। भट्टाचार्य ने अपराध कथाओं के प्रस्तुतीकरण में संयम बरतने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए टीआरपी के लिए सनसनीखेज़ी से बचने की बात कही। उन्होंने दिल्ली क्राइम और पाताल लोक जैसी रचनाओं में पुलिस के बहुस्तरीय चित्रण की सराहना की। वहीं नीरज कुमार ने पुलिसिंग के मानवीय और नैतिक पक्षों को रेखांकित करते हुए जानलेवा परिस्थितियों से जुड़े अपने अनुभव साझा किए और स्थानीय पुस्तक दुकानों व भारतीय लेखकों को समर्थन देने की अपील की।
सामाजिक प्रभावों पर केंद्रित “अनसीन वूंड्स: द रियल इम्पैक्ट ऑफ़ बुलइंग” सत्र में ज्योत्सना ब्रार, संगीता काइन, मानस लाल ने रिधिमा ओबेरॉय के साथ भावनात्मक आघात, डिजिटल उत्पीड़न और दीर्घकालिक मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डाला। ज्योत्सना ब्रार ने विशेष रूप से छोटे बच्चों के मामले में सज़ा के बजाय सुधारात्मक सहयोग की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। संगीता काइन ने बुलिंग को एक प्रणालीगत विफलता बताया, जहाँ शिकायतों की अनदेखी और काउंसलिंग सुविधाओं की कमी स्पष्ट है। वहीं मानस लाल ने अपने पीड़ित होने के अनुभव साझा करते हुए संस्थानों से अपील की कि बच्चों को दंडित करने के बजाय संवेदनशीलता और समर्थन के साथ आगे बढ़ाया जाए।
सिनेमा और अपराध का संगम “बियॉन्ड वासेपुर: द इवॉल्विंग वौइस् ऑफ़ ज़ीशान क़ादरी” सत्र में देखने को मिला, जहां फिल्मकार ज़ीशान क़ादरी ने नितिन उपाध्याय के साथ चर्चा की। क़ादरी ने कहा कि अपराध कथाओं में अक्सर डार्क ह्यूमर का तत्व होता है और इसके उदाहरण के रूप में उन्होंने खोसला का घोसला जैसी क्राइम कॉमेडी फिल्मों का उल्लेख किया। उन्होंने यह भी कहा कि फिल्मों में अपराधियों को आमतौर पर बेहद तेज़ दिमाग वाला दिखाया जाता है, जबकि वास्तविकता में वे ज़्यादा साहसी होते हैं और बुद्धि का कम इस्तेमाल करते हैं। आगे की योजनाओं पर बात करते हुए क़ादरी ने बताया कि वर्ष 2026 में वह भारत में लंबे समय से रह रहे अफ्रीकी मूल के एक समुदाय पर एक नॉन-फिक्शन किताब लिखने की योजना बना रहे हैं, जिसने विभिन्न क्षेत्रों, विशेष रूप से खेलों में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन आज भी सामाजिक स्वीकार्यता और पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है।। बिग बॉस की अपनी यात्रा को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वह 2025 में बिना किसी गेम प्लान के शो में गए थे और उन्हें सह-प्रतिभागियों और दर्शकों से जो सम्मान, अपनापन और प्यार मिला, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है।
शाम के सत्रों की शुरुआत “फिक्शन ऐज़ हिस्ट्री: बोस वर्सेज नेहरू” से हुई, जिसमें पत्रकार अंशुल चतुर्वेदी ने आलोक लाल के साथ संवाद किया। प्राइम-टाइम सत्र “बिहाइंड द बैज: स्टोरीज़ बिल्ट फॉर द बिग स्क्रीन” में अभिनेत्री त्रिधा चौधरी—जो ‘आश्रम’ और ‘बंदिश बैंडिट्स’ जैसे लोकप्रिय शोज़ के लिए जानी जाती हैं—और के.के. गौतम ने सतीश शर्मा के साथ वास्तविक अपराध और पुलिसिंग कहानियों को सिनेमा एवं ओटीटी के लिए रूपांतरित करने पर विचार साझा किए।


आस्था, धोखाधड़ी और विश्वास प्रणालियों पर केंद्रित सत्र “गोल्ड, गॉड एंड गुरूज़: द सिनिस्टर कल्ट ऑफ़ फेथ एंड फ्रॉड” में उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अशोक कुमार और अभिनेत्री त्रिधा चौधरी ने गौरव द्विवेदी के साथ संवाद किया। सत्र के दौरान बोलते हुए अशोक कुमार ने कहा कि देशभर में कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने कुछ आश्रमों की आड़ में संचालित हो रही विभिन्न प्रकार की आपराधिक गतिविधियों का पर्दाफाश किया है और उनका दस्तावेज़ीकरण किया है, जिनमें वित्तीय शोषण और अनुयायियों के साथ दुर्व्यवहार भी शामिल हैं। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी आश्रम या आध्यात्मिक संस्थान धोखाधड़ी में संलिप्त हैं, बल्कि वास्तविक आस्था और संगठित छल-कपट के बीच स्पष्ट अंतर करना अत्यंत आवश्यक है।
कार्यक्रम के समापन पर विचार व्यक्त करते हुए अशोक कुमार ने क्राइम लिटरेचर फेस्टिवल ऑफ इंडिया के सफल आयोजन की सराहना की और कहा कि इस मंच ने अपराध, विश्वास प्रणालियों और जन-विश्वास जैसे विषयों पर सार्थक संवाद को संभव बनाया। उन्होंने यह भी कहा कि पुलिसिंग, साहित्य, सिनेमा और पत्रकारिता से जुड़े विविध स्वरों को एक साथ लाकर यह उत्सव किशोर न्याय, साइबर अपराध, नशा तस्करी, भूमि घोटालों और महिलाओं की सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर जन-जागरूकता बढ़ाने में सफल रहा।
द डिटेक्टिव्स डेन में समानांतर सत्रों के अंतर्गत साहित्यिक और विषयगत चर्चाएं हुईं, जिनमें “व्हाट ड्रॉस अस टू राइट अबाउट मर्डर: ए कन्वर्सेशन अक्रॉस लैंग्वेजेज” सत्र में अंजलि कौर सुंदराज और गोपाल शुक्ला ने बातचीत करी। दस वर्षों से अधिक के अपराध रिपोर्टिंग अनुभव का हवाला देते हुए गोपाल शुक्ला ने कहा कि उनकी पुस्तक भले ही फिक्शन की भाषा में लिखी गई हो, लेकिन उसके पात्र और घटनाएं वास्तविक जीवन से प्रेरित हैं।
इसके बाद “लव एंड क्राइम: ए डीप डाइव इंटू लव, लस्ट, जेलेसी एंड मर्डर” सत्र में रूबी गुप्ता और अश्विनी भटनागर ने वार्तालाप करा, जिसके बाद “द चैलेंजेज़ इन एडिटिंग क्राइम राइटिंग” सत्र आयोजित हुआ, जिसमें पेंग्विन की संपादक सृष्ट्री सेठी ने संजीव मिश्रा के साथ कहा कि अपराध लेखन को सशक्त नैतिक आधार पर खड़ा होना चाहिए और लेखक की हर पंक्ति जवाबदेह होनी चाहिए।
सच्चे अपराध यथार्थ पर केंद्रित “नार्को रियलिटीज़: ट्रू क्राइम स्टोरीज़ बिहाइंड द हेडलाइंस” सत्र में राम सिंह मीणा और राजेश मोहन ने मीनाक्षी के साथ चर्चा की। मीणा ने बताया कि मादक पदार्थ अक्सर अफीम और भांग जैसे प्राकृतिक स्रोतों से शुरू होते हैं, लेकिन प्रवर्तन एजेंसियां प्रायः छोटे विक्रेताओं और नशेड़ियों को पकड़ पाती हैं, जबकि मुख्य आपूर्ति तंत्र छिपा रह जाता है। इसके बाद “मैट्रिमोनियल क्राइम्स फ्रॉम द आईज़ ऑफ़ ए प्राइवेट डिटेक्टिव” सत्र में देव गोस्वामी और रूबी गुप्ता ने बातचीत करी, वहीँ “द ओथ ऑफ़ शकुनि: महाभारत एस ए क्राइम एपिक” सत्र में सपन सक्सेना, हैरी पेंटल और सुहैल माथुर ने विनय कंचन के साथ वार्तालाब किया। इन सत्रों में अपराध, प्रतिशोध और नैतिक द्वंद्व को पौराणिक दृष्टि से देखा गया।
फेस्ट के समापन पर फेस्टिवल चेयरमैन एवं उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अशोक कुमार, फेस्टिवल डायरेक्टर एवं पूर्व डीजी उत्तराखंड आलोक लाल, फेस्टिवल सेक्रेटरी रणधीर के अरोड़ा और डीसीएलएस के मुख्य समन्वयक प्रवीन चंडोक ने क्राइम लिटरेचर फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया को अपराध, न्याय और समाज पर राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण संवाद मंच के रूप में और सुदृढ़ करने की प्रतिबद्धता दोहराई।

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