"हम किसी और कारण से अशांत नहीं होते, हम अपने कारण ही अशांत होते हैं" -
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“हम किसी और कारण से अशांत नहीं होते, हम अपने कारण ही अशांत होते हैं”

वाराणसी :” मानस सिंदूर” शिर्षक अंतर्गत चल रही आज की चौथे दिन की कथा के आरंभ में एक जिज्ञासा के उत्तर में पूज्य बापू ने कहा कि व्यक्ति को तीन अवस्थाओं में शांति प्राप्त हो, तभी उसे शांत माना जाना चाहिए। हमारी संस्कृति की पवित्र परंपरा में शांति मंत्र के अंत में तीन बार “शांति:” का उच्चारण किया जाता है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – तीनों अवस्थाओं में जो शांत रह सकता है, उसे ‘शांति प्राप्त व्यक्ति’ माना जाता है। यदि ऐसी शांति प्राप्त हो गई हो, तब असंग होने के संबंध में बापू ने कहा कि –
“जो चीज हमारे पास नहीं है, उसका त्याग कैसे किया जा सकता है? और यदि हमारे पास ऐसी कोई अमूल्य चीज है, तो उसे विवेक पूर्वक समान रुप से बांट देना चाहिए। भारतीय ज्ञान कहता है कि खेद और अखेद से मुक्त होने पर ही शांति और संतोष प्राप्त हो सकता है। कुछ लोगों को जाग्रत अवस्था में शांति मिलती है, लेकिन स्वप्न में उन्हें अशांति महसूस होती है। यदि कोई व्यक्ति सुषुप्त अवस्था में भी शांति का अनुभव करता है, तो वह बहुत बड़ी उपलब्धि है। और तूर्यावस्था की स्थिति तो सबसे अद्भुत है, जिसमें शांति भी शांत हो जाती है! वहाँ पर कुछ भी नहीं बचता।। यदि किसी को तीनों अवस्थाओं में शांति प्राप्त हो गई हो, तो वह स्वतः ही असंग बन जाता है! लेकिन यदि किसी को शांति प्राप्त नहीं हुई हो, तो असंग होने का प्रश्न ही नहीं उठता! और यदि किसी को तीनों अवस्थाओं में शांति प्राप्त हो जाती है, तो वह व्यक्ति स्वयं ही शांति का स्वरूप बन जाता है – शांति का विग्रह बन जाता है! बापू ने यहां पर सूत्रपात करते हुए कहा था कि “धनवानों को धार्मिक बनना पड़ता है या धार्मिक होने का दिखावा करना पड़ता है!”
“सच्चे धनिक व्यक्ति को धार्मिकता दिखानी नहीं पड़ती। रामचरित मानस के सिंदूर दर्शन में बापू ने गुरुमुखी बानी में लंका दहन की घटना का रहस्य स्पष्ट किया। भगवान राम ने सीताजी की मांग सिंदूर से भरी है, इसलिए सीताजी की मांग पूरी करना राम का दायित्व बनता है। राम के हृदय में पीड़ा है कि वे सीताजी की सुवर्ण मृग लाने की मांग पूरी नहीं कर सके। सुवर्ण मृग लेने के लिए भगवान उसके पीछे दौड़ते हैं और बाण भी चलाते हैं। लेकिन वहां सुवर्ण मृग था ही नहीं, वो तो मारीच था। इसी बीच सीताजी का अपहरण हो जाता है और रावण उन्हें लंका ले जाता है, तब भगवान राम हनुमानजी को लंका भेजते हैं। श्री हनुमानजी मृग (पशु) हैं और उनका शरीर सुवर्ण का (हेम शैलभदेहम्) है। अतः हनुमानजी को सीताजी के पास भेजकर सीताजी के सोने के मृग की मांग भगवान राम ने पूरी की है! सीता की सुवर्ण मृग की मांग पूरी करने के लिए राम द्वारा सीता को भेजा गया अबोल संदेश ही हनुमानजी हैं! लेकिन एक बार सुवर्ण मृग से छली गई माता जानकी, हनुमानजी पर विश्वास नहीं कर सकती। तब भगवान राम हनुमानजी को लंका दहन का संकेत देते हैं, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि असली सोना कौन है? लंका जलती है, पर श्री हनुमानजी नहीं जलते। जिस सोने में अभिमान है, वह नकली सोना है और जिस सोने में हनुमान हैं, वह असली सोना है! “जिस धन में अभिमान है, वह नकली धन है, पर जिसमें हनुमान हैं, वह असली संपदा है।”
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि “जप, तप, यज्ञ, दान – सभी सत्कर्मों का भोक्ता मैं हूँ। मैं सर्व लोक का महेश्वर हूँ और मैं सभी का सुह्रद हूँ।”
जो भगवान कृष्ण की इस महत्ता को जान लेता है, वह शांति प्राप्त कर सकता है। भोक्ता का एक अर्थ रक्षक भी होता है।
“जप, तप, दान, यज्ञ आदि सभी अच्छे कर्मों का रक्षक परमात्मा है” – जो इस सत्य को जान लेता है, वह जाग्रत अवस्था में शांति प्राप्त कर लेता है। ऐसे साधक को फिर कोई अशांति नहीं होती। क्योंकि वह जानता है कि भगवान कृष्ण स्वयं उसकी रक्षा करते हैं। जो भगवान कृष्ण को सर्व लोक का स्वामी जानता है, वह स्वप्न अवस्था में भी शांति प्राप्त करता है। और जो जानता है कि परमात्मा सुह्रद है, वह सुषुप्तावस्था में भी शांति प्राप्त करता है। जो साधक तीनों अवस्थाओं में शांत रहता है, वह जाग्रत अवस्था में स्वयं शांति स्वरूप हो जाता है!
जब हम किसी पहूंचे हुए बुद्ध पुरुष के पास जाते हैं, तो हमें शांति का अनुभव होता है, क्योंकि उनकी शांति ही हमें शांत करती है। ऐसे शांत बुद्ध पुरुष के पास अगर हमें पाँच मिनट भी बैठने का मौका मिल जाए, तो इसे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि समझना। हमारे पास कोई कीमती चीज होती है तोम वह हमें भी मूल्यवान बना देती है! रामचरित मानस परम साधु है, इसीलिए हम सब उनके सान्निध्य में इतने शांत और प्रसन्न रहते हैं। पूज्य बापू ने कहा, “हमारी समस्या यह है कि हम मौन को सुनना भूल गए हैं! पेड़, नदियाँ, आकाश, धरती – प्रकृति के सभी पाँच तत्व मौन हैं। उनके मौन रहने का कारण अलग-अलग है। जब फूल खिलता है, तो महकता है। फूल को भी नहीं पता होता कि वह कैसे खिला या कैसे मुरझाया! उसे तो बस अपनी खुशबू फैलानी होती है। जब कोई साधक इस रूप में संसार में आता है, तो वह मौन होता है। बापू ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, “कथा सुनाने का ऐसा स्तर कब आएगा, जब वक्ता न बोले, फिर भी श्रोता उसके मौन की भाषा समझ जाएँ?” यही शाश्वत कथा है, जो शांति में बहती रहती है।
पूज्य बापू ने भगवान विष्णु का उल्लेख करके शांति कैसे प्राप्त होती है, इसका दर्शन करवाया। भगवान विष्णु समुद्र की शय्या पर सोये हैं। समुद्र अशांत है, उसमें कोई कैसे शांति से सो सकता है? सांपों की शय्या है, उसके ऊपर काल की फणा हैं, नाभि में कमल खिला है और साक्षात लक्ष्मीजी उसके चरण दबा रही हैं – ऐसी स्थिति में भी भगवान विष्णु शांत हैं!
नानक, कबीर, तुकाराम, एकनाथ, ठाकुर रामकृष्णदेव – ये महापुरुष किसी भी स्थिति में शांत रहते हैं। ऐसे महापुरुष भारत का वैरागी वैभव है।
महर्षि रमण शांत हैं, महर्षि अरविंद शांत हैं, मीरा नाचती नहीं, उनकी शांति ने घुंघरू बाँध रखे हैं – मीरा नहीं, मीरा की शांति नाचती है!
“हम किसी और कारण से अशांत नहीं होते, हम अपने कारण अशांत होते हैं – शांति तो हमें जय माला पहनाने के लिए तैयार है!”
हमारे शास्त्र त्याग कर के भोगने का अनुभव करने की बात करते हैं। इसे पांचिका की तरह फेंक दो, फिर यह अपने आप तुम्हारे पास वापस आ जाएगी। बापू ने कहा कि लालसा का मतलब इच्छा, कामना या लालच नहीं है। लालसा तीव्रतम झंखना है – एक ऐसी झंखना, जिसके बिना नहीं रहा जा सकता!

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