नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना वायरस की वजह से 21 दिन के लॉकडाउन के दौरान शहरों से अपने पैतृक गांव लौट रहे बेरोजगार कामगारों के रहने के लिए होटलों और रिजार्ट का आश्रय गृहों के रूप में इस्तेमाल करने का निर्देश देने से शुक्रवार को इनकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार को हर तरह के विचारों पर ध्यान देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने यहां तक कहा कि सरकार को तमाम सारे विचारों को सुनने के लिए कोर्ट बाध्य नहीं कर सकता क्योंकि लोग तरह-तरह के लाखों सुझाव दे सकते हैं। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी उस वक्त की जब केंद्र की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने इस संबंध में दायर एक अर्जी पर आपत्ति की। मेहता ने कहा कि इन कामगारों के आश्रय स्थल के लिए राज्य सरकारों ने पहले ही स्कूलों और ऐसे ही दूसरे भवनों को अपने अधिकार में ले लिया है। न्यायालय में पेश आवेदन में आरोप लगाया गया था कि पलायन करने वाले कामगारों को जहां ठहराया गया है वहां सफाई की समुचित सुविधाओं का अभाव है।
पीठ ने कहा कि सरकार को तमाम सारे विचारों को सुनने के लिए न्यायालय बाध्य नहीं कर सकता क्योंकि लोग तरह तरह के लाखों सुझाव दे सकते हैं। लॉकडाउन की वजह से शहरों से पैतृक गांवों की ओर पलायन करने वाले दैनिक मजदूरों का मुद्दा पहले से ही न्यायालय के विचाराधीन है। प्रधान न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने 31 मार्च को केंद्र को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि पलायन कर रहे इन कामगारों को आश्रय गृह में रखा जाए और उनके खाने-पीने और दवा आदि का बंदोबस्त किया जाए। शीर्ष अदालत ने इन कामगारों को अवसाद और दहशत के विचारों से उबारने के लिए विशेष सलाह देने के लिए विशेषज्ञों और इस काम में विभिन्न संप्रदायों के नेताओं की मदद लेने का भी निर्देश दिया था। न्यायालय ने अचानक ही बड़ी संख्या में कामगारों के पलायन से उत्पन्न स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था, यह दहशत वायरस से कहीं ज्यादा जिंदगियां बर्बाद कर देगी। सॉलिसीटर जनरल ने 31 मार्च को न्यायालय से कहा था कि अपने गृह नगरों की ओर पलायन करने वाला कोई भी कामगार अब सडक़ पर नहीं है।