भगवान श्रीराम जी अपने परम भक्त श्रीहनुमान जी से, अपनी अर्धांगिनी श्रीसीता जी की कथा को मन, वचन और कर्म से हृदय में धारण करके श्रवण कर रहे हैं। एक बार किसी ने भगवान से प्रश्न किया, कि हे प्रभु! संपूर्ण जगत आपकी कथा का रसपान करता है एवं अपने जीवन को कल्याण के मार्ग पर प्रशस्त करता है।
लेकिन क्या आपका स्वयं का, कभी कथा श्रवण करने का मन नहीं करता? माना कि चलो मन करता भी होगा, तो आप किसकी कथा सुनते हैं?
मुझे पता है कि आप कम से कम, अपने चरित्र गान की कथा, स्वयं के ही श्रवण द्वारों से भला कैसे सुनते होंगे? कारण कि ऐसा व्यवहार तो स्वयं को ही पसंद नहीं आता होगा। और फिर कोई भी अगर किसी की कथा श्रवण करता भी है, तो वह उसी की ही कथा तो सुनेगा, जो उसके स्वयं से अथवा सबसे बड़ा हो।
अब आप तो ठहरे श्रीहरि भगवान। आपसे बड़ा तो कोई है ही नहीं। तो इस माप दण्ड के आधार पर तो आप किसी और की कथा भी नहीं सुन सकते।
तो क्या यह मान जिया जाये, कि आप कथा सुनते ही नहीं। मुझे पता है, यह संभव ही नहीं, कि आप और कथा का अस्तित्व भिन्न-भिन्न हो। ऐसे में आपके पास क्या स्पष्टीकरण हैं? तो भगवान बोले, कि कौन कहता है, कि हमसे बड़ा कोई ओर नहीं है? हमसे भी बड़ा कोई है। यह बात अलग है, कि आपको उसका ज्ञान नहीं है।
अब आपको यह उत्कंठा त्रस्त कर रही है, कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। तो हे जिज्ञासु सुनो! वैसे तो हमसे बड़ा संसार में सचमुच कोई नहीं है। लेकिन जब बात हमारे भक्तों की होगी, हमारी दृष्टि में हमारे भक्त ही हमसे बड़े होंगे। और उनके बारे में कही गई कोई भी बात, हमारे लिए कथा ही होती है।
समझ गए न जिज्ञासु? हमारा जब भी कभी कथा सुनने का मन होता है, तो हम अपने भक्त की ही गाथा सुनते हैं। हमारा भक्त जैसे हमारी लीला श्रवण कर रोता है, हँसता है और नाचता व गाता है। ठीक उसी प्रकार हम भी अपने भक्त की प्रत्येक लीला का आनंद लेते हैं।